Wednesday, July 30, 2008

सृजन



ना जाने किस उलझन मे किस दिशा मे,किस गति से, अनवरत
किस सूर्या की परिधि मे, एक ग्रह की तरह परिक्रमा कर रहा हूँ
कभी दिवस कभी रात्रि का आलिंगन करता,विचलित,
समय से प्रतिस्पर्धा करता,अपनी गति को कभी तेज कभी धीमा कर रहा हूँ

अस्तित्वा के इस आत्मद्वंद मे ना जाने कब विराम आएगा
कब समाप्त होगी यह आतं-मंथन की प्रक्रिया
अपने स्वेद कनो से आभूषित,क्षणिक आनंद की आशा मैं
अंतर्मन की ध्वनियों को अनसुना कर रहा हूँ

मेरा बुधीजीवी अंश, स्वयं की सीमाओं को जानता है
सुसुप्त है पर मृत नही,किंतु निशब्द क्यों है
शांत,शोषित,सांसारिक नियमों के पराधीन,प्रतिक्रिया-विहीन
एक अद्भुत परिवर्तन की प्रतीक्षा कर रहा हूँ

देखता हूँ,ग़रीबी का कफ़न ओढ़े शहस्त्र मनुषयॉ को
फिर भी मेरी भावनायें मौन हैं, इतना कठोर
इतना कठोर हृदय पटल नही है मेरा
फिर क्यों सिर्फ़ खुद की तलाश मैं जिए जा रहा हूँ


क्यों नही करता मैं शंखनाद एक क्रांति का?
क्यों ढूँढ रहा हूँ मैं खुद के लिए प्रेम, आशक्ति?
कहीं दूर से आती मानवता की पुकार को क्यों अनसुना कर रहा हूँ मैं?
क्यों नही करता मैं दूसरों के अस्तित्व के लिए भी थोड़ी परिक्रमा?

जानता हूँ, तुच्छा हूँ मैं संसार के बनाए विशालकाया नियमों के सामने
किंतु,स्वयं की इक्चा-शक्ति पर भरोसा है मुझे
पुनर्निर्माण नही कर सकता,जानता हूँ,परिवर्तन तो ला सकता हूँ
अपनी आत्मा के नवीन सृजन की ऑर जा रहा हूँ.

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